Hinduism is the Only Dharma

Hinduism is the Only Dharma in this multiverse comprising of Science & Quantum Physics.

Josh Schrei helped me understand G-O-D (Generator-Operator-Destroyer) concept of the divine that is so pervasive in the Vedic tradition/experience. Quantum Theology by Diarmuid O'Murchu and Josh Schrei article compliments the spiritual implications of the new physics. Thanks so much Josh Schrei.

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Sunday, January 15, 2012

खगोलीय दृष्टि से दिवाली का महत्व :-


खगोलीय दृष्टि से दिवाली का महत्व :-

मेष एवं तुला की संक्रांति में सूर्य विषुवत रेखा (नाड़ीवृत्त) पर रहता है, जिसे देवता 6 माह तक उत्तर की ओर तथा राक्षस 6 माह तक दक्षिण की ओर खींचते हैं। मंदराचल पर्वत ही नाड़ीवृत्त है, जिसके एक भाग में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशि हैं जिन्हें देवता खींचते हैं। दूसरे भाग में तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन राशि हैं जिन्हें राक्षस खींचते हैं। मंथन से चौदह रत्न निकलते हैं, जिनमें महालक्ष्मी कार्तिक की अमावस्या को प्रकट होती हैं।

कार्तिक कृष्ण अमावस्या को समुद्र मंथन के परिणामस्वरूप महालक्ष्मी का जन्म हुआ था। हम जिस लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं वह अब भी प्रतिवर्ष समुद्रमंथन से निकलती हैं। ज्योतिषशास्त्र, भूगोल या खगोल की दृष्टि से देखें तो सूर्य को सभी ग्रहों का केंद्र एवं राजा माना गया है। सूर्य की बारह संक्रांतियां हैं। नाड़ीवृत्त मध्य में होता है, तीन क्रांतिवृत्त उत्तर को और तीन दक्षिण को होते हैं।

समुद्र मंथन में भगवान विष्णु की ही बड़ी भूमिका रही है और सूर्य ही भगवान विष्णु स्वरूप हैं। सूर्य क्रांतिवृत्त पर विचरण करता है। यह 6 माह उत्तर गोल में एवं 6 माह दक्षिण गोल में विचरण करता है, जिन्हें देवभाग एवं राक्षस भाग भी कहते हैं। मेष एवं तुला की संक्रांति में सूर्य विषुवत रेखा (नाड़ीवृत्त) पर रहता है, जिसे देवता 6 माह तक उत्तर की ओर तथा राक्षस 6 माह तक दक्षिण की ओर खींचते हैं।
मंदराचल पर्वत ही नाड़ीवृत्त है, जिसके एक भाग में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह व कन्या राशि हैं जिन्हें देवता खींचते हैं। दूसरे भाग में तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ व मीन राशि हैं जिन्हें राक्षस खींचते हैं। मंथन से चौदह रत्न निकलते हैं, जिनमें महालक्ष्मी कार्तिक की अमावस्या को प्रकट होती हैं।

लक्ष्मी, महालक्ष्मी, राजलक्ष्मी, गृहलक्ष्मी आदि लक्ष्मी के अनेक रूप हैं। लक्ष्मी विहीन होने पर लोग ज्योतिष की शरण में भी जाते हैं। दीपावली के लिए पुराणों में अनेक कथाएं हैं। वास्तव में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को पृथ्वी का जन्म हुआ था और पृथ्वी ही महालक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी मानी गई है। दीपावली पृथ्वी का जन्मदिन है, इसलिए इस दिन सफाई करके धूमावती नामक दरिद्रा को कूड़े-करकट के रूप में घर से बाहर निकालकर सब ओर ज्योति जलाते हैं तथा श्री कमला लक्ष्मी का आह्वान करते हैं।
दीपावली से पूर्व अच्छी वर्षा से धनधान्य की समृद्धि रूपी लक्ष्मी का आगमन भी होता है। संवत्सर के उत्तरभाग में ऋत सोम तत्व रहता है जो लगातार दक्षिण की ओर बहता रहता है। दक्षिण भाग में ऋत अग्नि रहती है जो हमेशा उत्तर की ओर बहती है। लक्ष्मी का आगमन ऋताग्नि का आगमन ही होता है।
यह दक्षिण से होता है, इसीलिए आज भी भारतीय किसान फसल की पहली कटाई दक्षिण दिशा से ही करता है। ऋताग्नि एक ऐसी ज्योति है जो पूरी प्रजा को सुख-शांति एवं समृद्धि प्रदान करती है और वही महालक्ष्मी है। ज्योतिषशास्त्र में भी जन्मकालीन ग्रहयोगों के आधार पर महालक्ष्मी योग देखा जाता है।
शास्त्रों में कहा गया है-

लक्ष्मीस्थानं त्रिकोणं स्यात् विष्णुस्थानं तु केंद्रकम्।
तयो: संबंधमात्रेण राज्यश्रीलगते नर: ।।

यह योग श्री लक्ष्मी प्राप्ति का संकेत देता है। केंद्रस्थान में लग्न, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव गिने जाते हैं तथा त्रिकोण स्थान में पंचम एवं नवम भाव को माना गया है। जिस व्यक्ति का शरीर स्वस्थ हो, स्थायी संपत्ति, सुख-सुविधा के साधन हों, जीवनसाथी मनोनुकूल हो तो वह विष्णुस्वरूप बन जाता है।
इन सब गुणों का उपयोग सद्बुद्धि एवं धर्मपरायणता के साथ हो तो व्यक्ति महालक्ष्मी एवं राज्यश्री को प्राप्त करने वाला होता है। व्यक्ति यदि कर्मशील होगा, सदाचारी होगा, गुरुनिंदा, चोरी, हिंसा आदि दुराचारों से दूर रहेगा तो लक्ष्मी स्वत: उसके यहां स्थान बना लेगी।

पौराणिक प्रसंगों में स्वयं लक्ष्मी कहती हैं-

नाकर्मशीले पुरुषे वरामि, न नास्तिके, सांकरिके कृतघ्ने।
न भिन्नवृत्ते, न नृशंरावण्रे, न चापि चौरे, न गुरुष्वसूये।।
अत: कर्मशील एवं सदाचारी व्यक्ति को ही राज्यश्री एवं महालक्ष्मी योग बन पाता है। जबकि लोगों की ऐसी धारणा है कि खूब पैसा, धन दौलत हो तो आनंद की प्राप्ति हो सकती है, पर यह धारणा गलत है। ज्योतिषशास्त्र एवं पौराणिक ग्रंथों में महालक्ष्मी का स्वरूप दन-दौलत या संपत्ति के रूप में नहीं बताया गया है।

लक्ष्मीवान उस व्यक्ति को माना गया है जिसका शरीर सही रहे और जिसे जीवन के हर मोड़ पर प्रसन्नता के भाव मिलते रहें। मुद्रा के स्थान एवं खर्च के स्थान को महालक्ष्मीयोग का कारक नहीं माना गया है बल्कि प्राप्त मुद्रा रूपी लक्ष्मी को सद्बुद्धि के साथ कैसे खर्च करके आनंद लिया जाए, इसे माना गया है। इसीलिए महालक्ष्मी पूजन में महालक्ष्मी, महासरस्वती एवं गणोश जी का पूजन एक साथ किया जाता है।
गणोश बुद्धि के देवता हैं तथा सरस्वती ज्ञान की देवी हैं, इसीलिए लक्ष्मी के पहले श्री शब्द लगाया जाता है। यह श्री सरस्वती का बोधक होता है। इसका भाव यह निकलता है कि मुद्रारूपी लक्ष्मी को भी यदि कोई प्राप्त करता है तो श्रेष्ठ गति के साथ जो उसका उपयोग एवं उपभोग करता है, वह आनंद की अनुभूति करता है।

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